कालिंजर दुर्ग
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, लखनऊ मण्डल
कालिंजर दुर्ग (उत्तरी अक्षांश 25°1' तथा 80° 29' पूर्वी देशान्तर) उत्तर प्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र में बाँदा जिले की नरैनी तहसील में स्थित है। यह दुर्ग बाँदा जिला मुख्यालय से 56 कि0मी0 दक्षिण में तथा इलाहाबाद से 200 कि0मी0 दक्षिण पश्चिम में समुद्र तल से लगभग 366 मी0 की ऊँचाई पर निर्मित है। वस्तुतः यह दुर्ग लगभग 3. 20 वर्ग कि०मी० वर्ग के क्षेत्र में विस्तृत एक पर्वत पर स्थित है जिसके दक्षिण – पश्चिम में नीचे की ओर बाघेन नदी प्रवाहमान है जो आगे चलकर यमुना नदी में मिल जाती है। कालिंजर शब्द कालजर का अपभ्रंश । कालंजर शिव का एक नाम है, जिसका अर्थ है मृत्यु को नष्ट करने वाला। महाकाव्यों, पुराणों तथा प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में कालिंजर को गहन शैव साधना का एक महत्वपूर्ण केन्द्र माना गया । भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना हेतु कालिंजर पर्वत पर कठोर तप करके विष्णु को सन्तुष्ट किया था। कालिंजर नाम की उत्पत्ति का तादात्म्य एक पौराणिक घटना से स्थापित किया जाता है। जिसके अनुसार भगवान शिव ने समुद्र-मन्थन से निकले काल-कूट (विष) को पीने के उपरान्त उसे इसी पर्वत पर जीर्ण कर अपनी व्याकुलता शान्त की। इसी कारण इस स्थान को कालिंजर कहा गया। यद्यपि यह माना जाता है कि कालिंजर दुर्ग का निर्माण चन्देल शासकों द्वारा किया गया था, परन्तु इसकी पुष्टि किसी साक्ष्य से नहीं होती है। कालिंजर पर कई राजवंशों का शासन रहा जिनमें चेदि, नन्द, मौर्य, शुंग, कुषाण व गुप्त आदि राजवंश सम्मिलित थे।
कालिंजर क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों के साक्ष्य पुरापाषाण काल से प्राप्त होते हैं। अब तक इस क्षेत्र से पुरापाषाण कालीन कई उपकरण प्राप्त किये जा चुके हैं। प्राचीन साहित्य में कालिंजर पर सर्वप्रथम चेदि शासकों के अधिकार का उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद की एक दान स्तुति में चैद्य (चेदि का शासक) वसु द्वारा ब्रह्मतिथि नामक ऋषि को सौ ऊँट और एक हजार गायें दान देने का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य में कालिंजर को 'तपो-स्थल कहा गया है।
कुछ समय पश्चात् चेदि शासकों को हटाकर वसु (हस्तिनापुर के राजा कुरू के वंशज) ने चेदि-देश पर अधिकार कर लिया। इस विजय के कारण ही उसको चैद्योपरिचर (चेदियों का विजेता) की उपाधि प्राप्त हुई। ऐसा माना जाता है कि उसकी राजधानी शुक्तिमती नगरी थी जो शुक्तिमती नदी के तट पर स्थित थी। इस नदी का तादात्म्य वर्तमान 'केन' के साथ स्थापित किया जाता है।
कालिंजर दुर्ग से गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं। जिनसे यहाँ गुप्तों के आधिपत्य का संकेत प्राप्त होता है। तत्पश्चात् इस क्षेत्र में पाण्डुवंशी शासक 'उदयन' के शासन का ज्ञान कालिंजर-अभिलेख से होता है।
विद्वानों ने इस अभिलेख का काल पांचवी शताब्दी ई० के अन्तिम चरण में सुनिश्चित किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कालिंजर छठी शताब्दी ई० के | मध्य में उदयन व उसके उत्तराधिकारियों के आधिपत्य में रहा होगा। पाण्डुवंशियों को इस क्षेत्र से हटाने वाले सम्भवतः कलचुरि शासक थे जिसकी पुष्टि इस वंश के प्रथम ऐतिहासिक शासक कृष्णराज की मुद्राओं से होती है। इस वंश का द्वितीय प्रमुख शासक 'विज्जल' था जिसने 'कालिंजर पुरवराधीश्वर की उपाधि धारण की थी। कलचुरियों के उपरान्त कालिंजर पर गुर्जर-प्रतिहारों की सत्ता स्थापित हुई, जिसकी पुष्टि भोज प्रथम (836-850 ई0) के वाराह ताम्रपत्र से होती है। गुर्जर-प्रतिहारों के बाद कालिंजर पर राष्ट्रकूटों का क्षणिक आधिपत्य रहा जिसकी पुष्टि कृष्ण-III के जूरा (सतना जिला ) अभिलेख से होती है। तत्पश्चात् कालिंजर दुर्ग को सर्वाधि महत्व चन्देलों के शासन काल में प्राप्त हुआ। 1023ई0 में चन्देल शासक विद्याधर के काल में इस दुर्ग पर महमूद गजनवी का आक्रमण हुआ था परन्तु सुदीर्घ घेराबन्दी के बावजूद यह दुर्ग अविजित रहा । उत्तरवर्ती चन्देल शासकों में परमर्दिदेव व त्रैलोक्यवर्मन प्रमुख थे जिन्होंने 'कालंजराधिपति' का विरूद धारण किया था। 1202 ई० में परमर्दिदेव के शासन काल में कालिंजर दुर्ग पर कुतुबुद्दीन ऐबक का आक्रमण एक महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना सिद्ध हुई। 1545 ई० में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण कर चन्देलों के अन्तिम शासक कीरत सिंह को पराजित कर, चन्देलों का पराभव कर दिया, हालाँकि तोप का गोला फटने से शेरशाह स्वयं भी कालकवलित हो गया। 1569ई0 में सम्राट अकबर ने कालिंजर दुर्ग पर फतह हासिल की। उस समय वहाँ का राजा रामचन्द्र था। सम्राट अकबर ने अपने नवरत्नों में से एक राजा बीरबल को यह दुर्ग जागीर के रूप में प्रदान किया। जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक कालिंजर मुगल साम्राज्य का अंग बना रहा । औरंगजेब के काल में बुन्देलों ने कालिंजर दुर्ग पर विजय प्राप्त की एवं मान्धाता चौबे को कालिंजर का दुर्गपति नियुक्त किया ।
सन् 1812 में ब्रिटिश कर्नल मार्टिन्डेल ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया तथा चौबे परिवार को दुर्ग से हमेशा के लिये बेदखल कर दिया गया तत्पश्चात् कालिंजर को बाँदा जनपद में सम्मिलित कर सैनिक छावनी बना दिया गया ।
यह शिवालय दुर्ग के पश्चिम कोण पर स्थित है। इसमें शैल-कृत गर्भगृह व इसके सम्मुख स्तम्भ-युक्त मण्डप है। गर्भगृह के द्वार-स्तम्भ पर लतापत्र तथा नदी देवियों गंगा -यमुना का अंकन है। गर्भगृह के पृष्ठ भाग पर अत्यन्त संकरा प्रदक्षिणा- -पथ है। गर्भगृह के भीतर विशाल एकमुखी शिवलिंग है तथा इसकी भीतरी दीवार पर ऋषि तथा भक्तों का अंकन है। गर्भगृह के सामने मण्डप में कुल 16 स्तम्भ हैं जो वर्तमान में छतविहीन है। तथा इसके स्तम्भ इस प्रकार व्यवस्थित किये गये हैं कि इसकी छत अष्टकोणीय दिखायी पड़ती है। मण्डप का फर्श अष्टकोणीय है तथा इसमें प्रवेश हेतु उत्तरी, पश्चिमी व दक्षिणी ओर से स्तम्भ युक्त प्रवेश द्वार निर्मित किये गये थे जो वर्तमान में भग्नावस्था मे हैं। इस मंदिर के स्तम्भों व दीवारों में अभिलेख हैं जिसमें चन्देल शासक मदन वर्मा का 12वीं शताब्दी का अभिलेख महत्वपूर्ण है। इसमें नीलकंठ की स्तुति के साथ-साथ द्वारपाल संग्राम सिंह और नृत्यांगना का वर्णन है। निर्माण काल की दृष्टि से गर्भगृह को गुप्त कालीन व इसके मण्डप को चन्देल कालीन माना जा सकता है|
वेंकट-बिहारी मंदिर :-
बुन्देलकालीन यह मंदिर किले के लगभग मध्य भाग में स्थित है। इस मंदिर में प्रदक्षिणा–पथ युक्त गर्भगृह तथा इसके सम्मुख आयताकार मंडप है। गर्भगृह के ऊपर छत पर एक आकर्षक गुम्बदाकार शिखर है जो | अष्टकोणीय पीठिका पर अवस्थित है। छत की मुंडेर पर छोटी-छोटी स्तम्भ युक्त छतरियाँ निर्मित की गयी हैं। मंदिर की सम्पूर्ण संरचना हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण है।
पाथर महल मस्जिद :-
यह मस्जिद कोटितीर्थ जलाशय के उत्तरी छोर पर स्थित है तथा जर्जर अवस्था में है। इसकी छत कई स्तम्भों पर आधारित है जो मूलतः हिन्दू मंदिरों के अवशेष हैं। इसकी एक दीवार पर बुन्देल नरेश प्रताप रूद्रदेव का अभिलेख है।
कोटितीर्थ जलाशय :-
कालिंजर दुर्ग में छोटे-बड़े अनेक जलाशय हैं। इनमें अधिकांशतः शैलकृत है तथा इनके चारों ओर अनगढ़ व तराशे हुऐ प्रस्तर खण्डों की दीवार निर्मित की गयी है। इनमें उतरने के लिए सोपानों का निर्माण किया गया है। ऋग्वैदिक व अन्य पौराणिक ग्रन्थों में कालिंजर दुर्ग के जलाशयों के महत्व पर विशेष प्रकाश डाला गया है तथा यह कहा गया है कि यहाँ पर स्नान करने के पश्चात कई प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है कालिंजर दुर्ग का एक प्रमुख आकर्षण विशाल सरोवर कोटितीर्थ है। इसके तट पर अनेक देवालय थे जिनके अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। तालाब की दीवारों पर देवी, देवताओं आदि की मूर्तियाँ लगायी गई थीं जिनको किसी समय चूने के पलस्तर से ढक दिया गया था। इस सरोवर के अतिरिक्त कुछ बड़े जलाशय बुढ्ढा-बुढी तालाब, शनीचरी तालाब, राम कटोरा तालाब तथा लघु जलाशय जैसे- सीताकुण्ड, पाताल गंगा आदि हैं। इनके अतिरिक्त नीलकण्ठ मंदिर के ठीक ऊपर स्वर्गारोहण तालाब स्थित है।
मृगधारा:-
कालिंजर दुर्ग के दक्षिणी भाग में एक शिलाखण्ड पर मृगों का सुन्दर अंकन किया गया है। इसके समीप जलस्रोत है जो इसके मृगधारा नाम को सार्थक करता है। यहाँ गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में अंकित लघु अभिलेख हैं जो तत्कालीन तीर्थ यात्रियों द्वारा उत्कीर्ण करवाये गए थे। इस स्थान से सम्बन्धित एक रोचक पौराणिक कथा प्राप्त होती है, जिसके अनुसार कुशिक ने अपने सात पुत्रों के आचरण से क्रोधित होकर उन्हें घर से निष्कासित कर दिया था और वे महर्षि गर्ग के यहाँ रहने लगे। असत्य भाषण एवं मांसभक्षण के कारण महर्षि गर्ग के शाप से कुशिक पुत्र मृग बनकर कालिंजर गिरि पर रहने लगे। इस पुण्य क्षेत्र में वास करने तथा सत्कर्मों से उनका उद्धार हो गया। इस स्थान पर उत्तीर्ण सात मृगों का तादात्म्य इन्हीं सात पुत्रों से किया जाता है।
राजा अमान सिंह महल:-
बुन्देल नरेश राजा अमान सिंह का द्वितलीय महल कोटितीर्थ जलाशय के उत्तर-पूर्व कोण पर स्थित है। प्रवेश द्वार से महल के भीतर प्रवेश करने पर एक विशाल खुला बरामदा है जिसके तीन ओर स्तम्भ- युक्त गलियारे हैं सम्पूर्ण भवन चूने से पलस्तर किया गया है जिन्हें सुन्दर पच्चीकारी एवं अलंकरण कर सुसज्जित किया गया है।
रानी महल:-
वेंकट बिहारी मंदिर के पूर्व में बुन्देल कालीन यह निर्माण अपने विशाल आकार और ऊँचाई के लिए प्रसिद्ध रहा होगा। विशाल प्रवेशद्वार से युक्त यह एक द्वितलीय इमारत है। जिसके मध्य में एक खुला बरामदा है।
जो चारों ओर से स्तम्भ-युक्त गलियारों से जुड़ा हुआ है। प्रवेशद्वार के ऊपर स्तम्भों पर आधारित एक आयताकार छज्जा है जो प्रवेशद्वार को भव्य बनाता है। बरामदे के चारों ओर निर्मित गलियारों में स्तम्भों पर विभिन्न प्रकार के ज्यामितीय व पुष्प-पत्रावलियों को चूने के पलस्तर पर उकेरा गया है|
चौबे महल:-
यह महल सातवें द्वार (बड़ा दरवाजा) के निकट स्थित है जिसका प्रवेशद्वार सादा किन्तु आकर्षक है। यह महल भी द्वितलीय है परन्तु भग्नावस्था में हैं। प्रवेशद्वार के भीतर प्रवेश करने पर एक खुला बरामदा है जिसके चारों ओर रानी महल सदृश्य स्तम्भ-युक्त गलियारे हैं|
स्थापत्य विवरण:-
लाल बलुआ प्रस्तर-खण्डों से निर्मित कालिंजर दुर्ग के भवन अत्यंत आकर्षक हैं। जिनमें पीले रंग के चूने का पलस्तर किया गया है। प्रस्तर–खण्डों पर चूने के पलस्तर का प्रयोग तत्कालीन कारीगरी का विलक्षण नमूना है। कालिंजर-दुर्ग की महत्वपूर्ण संरचनाओं में किले की सुदृढ़ रक्षा-प्राचीर, नीलकण्ठ मंदिर, वेंकट बिहारी मंदिर, पाथर महल मस्जिद, यहाँ के विशाल तड़ागों जैसे कोटि-तीर्थ, बुढ्ढा-बुढ्ढी तालाब आदि का नाम लिया जा सकता है।
रक्षा - प्राचीर व प्रवेश द्वार:-
कालिंजर दुर्ग की रक्षा प्राचीर की परिधि लगभग 6 . कि०मी० लम्बी है जिसकी ऊँचाई 5 से 12 मी0 तक व चौड़ाई 4 से 8 मीटर तक है। इसके निर्माण में बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया है। वर्तमान में रक्षा-प्राचीर विभिन्न स्थलों पर खण्डित है।
कालिंजर दुर्ग में ऊपर जाने के लिये दो मार्ग हैं। मुख्य द्वार उत्तर में है, जिससे ऊपर जाने के रास्ते में सात द्वार निर्मित हैं जिनसे होकर दुर्ग में प्रवेश किया जा सकता है। इन द्वारों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
(i) आलम दरवाजाः
नीचे से ऊपर चढ़ने पर यह प्रथम दरवाजा है जिसे आलमगीर द्वारा निर्मित किये जाने के कारण आलम दरवाजा कहा जाता है। इसकी मेहराब पर तीन पंक्तियों वाला फारसी अभिलेख है जिसे आलमगीर के समय मुराद ने उत्कीर्ण करवाया था। विद्वानों द्वारा इसकी तिथि 1643 ई0 निर्धारित की गयी है।
(ii) गणेश दरवाजा:
प्रथम द्वार से आगे जाने पर घेरेनुमा सीढ़ियों पर द्वितीय द्वार मिलता है। इसका यह नाम यहाँ पर उत्कीर्ण गणेश मूर्ति के कारण पड़ा है।
(iii) चौबुर्जी द्वारः
द्वितीय द्वार से कुछ ऊपर जाने पर एक दोहरा दरवाजा है लेकिन दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण भवन का निर्माण करते हैं। मैसी ने इसे चौबुर्जी दरवाजा नाम दिया है।
यहाँ पर तीर्थ यात्रियों द्वारा उत्कीर्ण अनेक अभिलेख हैं। कनिंघम को यहाँ उत्तर गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुआ था।
(iv) बुध द्वारः
बुध ग्रह के नाम पर यह नामकरण किया गया। इसका एक अन्य नाम स्वर्गारोहण द्वार भी है।
(v) हनुमान दरवाजाः
यहाँ राम भक्त हनुमान की प्रतिमा होने के कारण इसे हनुमान दरवाजा के नाम से जाना जाता है।
(vi) लाल दरवाजा:
इसके निर्माण में लाल रंग के पत्थर प्रयुक्त होने के कारण इसे लाल दरवाजा नाम दिया गया, यद्यपि सभी द्वारों में लाल रंग के बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया है।
(vii) बड़ा दरवाजाः
सभी द्वारों में सबसे बड़ा होने के कारण इसे बड़ा दरवाजा कहा जाता है। इस द्वार से दुर्ग में सीधे प्रवेश किया जाता है। यहाँ पर सन 1634 ई0 का एक अभिलेख है। बनावट के आधार पर इसे मुगल कालीन कहा जा सकता है।
मूर्ति शिल्प:-
कालिंजर दुर्ग का एक अन्य आकर्षण यहाँ का मूर्तिशिल्प भी है जिनके निर्माण में मूर्तिकार ने इतनी अधिक कुशलता का परिचय दिया है कि ये मूर्तियाँ जीवन्त प्रतीत होती हैं। ऐसी ही एक विशाल मूर्ति गजान्तक शिव (कालभैरव) की है जो नीलकंठ मंदिर के दक्षिणी ओर एक ऊँची चट्टान पर उकेरी गयी है। किले के दक्षिण पूर्वी कोने पर स्थित पन्ना गेट के निकट एक ऊँची चट्टान पर उकेरी गयी मण्डूक भैरव की मूर्ति भी उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त शैव धर्म से सम्बन्धित अनेक मूर्तियाँ | जैसे शिव-पार्वती, गणेश, योगी, एकमुख शिवलिंग, सप्तमातृकायें, नृत्यरत जन-समूह आदि नीलकंठ मंदिर के निकट चट्टानों पर यत्र-तत्र उकेरी गयी हैं। वर्तम में अमान सिंह महल के भीतर कई दुर्लभ मूर्तियाँ संग्रहीत हैं। इसी महल में शिवलिंगों का एक अद्भुत संग्रह है जिनमें एकमुख शिवलिंग, पंचमुखी शिवलिंग तथा सहस्त्र-मुखी शिवलिंग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
पहुँच मार्ग -
इलाहाबाद से कालिंजर बस / निजी वाहन द्वारा लगभग 200 कि० मी०
बाँदा से कालिंजर बस / निजी वाहन द्वारा 56 कि० मी०
निकटतम रेलवे स्टेशन - अतर्रा, 36 कि०मी०
निकटतम हवाई अड्डा - खजुराहो, 135 कि० मी०
Courtesy: भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, लखनऊ मण्डल